डॉ. कुमुद ने ऑक्सीजन मास्क लगा की थी आखिरी सर्जरी
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डॉ. प्रेम 60 साल पहले अपने हाथों जिस बच्ची को दुनिया में लेकर आईं, उसे अपनी आंखों से जाते हुए भी देखा
यह
कहानी आपको फिल्मी लग सकती है लेकिन शायद बड़े फिल्मकारों को इसी तरह की सच्ची कहानियों से प्रेरणा मिलती हो। बात 10 जून, 1959 की है। जालंधर के इमामनासिर में गुप्ता मेडिकल हाल के मालिक लेखराज गुप्ता की पत्नी ओम गुप्ता को लेबर पेन शुरू हुई। उनकी पांचवीं संतान आने वाली थी। इमामनासिर से थोड़ी दूर ही बांसावाला बाजार में शहर की पहली गायनीकॉलोजिस्ट डॉ. प्रेम पसरीचा का क्लीनिक था। डॉ. प्रेम की गोद में उस वक्त चार महीने का बेटा था। नाम रखा था राजेश। वह नवजात राजेश को अपने साथ क्लीनिक लेकर आतीं। वह दिन भी खास था। प्रसव पीड़ा में ओम कुमारी को डॉ. पसरीचा के क्लीनिक लाया गया और कुछ देर बाद बेटी ने जन्म लिया। यह गुप्ता परिवार की तीसरी बेटी थी। बेटी को कुमुद नाम दिया। कल्पना कीजिए अगर उस दिन राजेश को डॉ. प्रेम क्लीनिक पर लेकर आई होंगी तो कुमुद की किलकारियां राजेश के कानों में भी पड़ी होंगी। डॉ. प्रेम पसरीचा ने भी उस वक्त शायद नहीं सोचा था कि एक दिन यही कुमुद उनके घर बहू बनकर आएगी।
डॉ. प्रेम 60 साल पहले जिस बच्ची को अपने हाथों इस दुनिया में लेकर आई थीं उसे 28 मई, 2019 को अपनी आंखों से जाते हुए भी देखा। यह डॉ. कुमुद पसरीचा और डॉ. राजेश पसरीचा की कहानी है। डॉ. कुमुद अपने 60वें जन्मदिन से 12 रोज पहले डॉ. राजेश का साथ छोड़ सदा के लिए चली गईं। आइए उनके जीवन के बारे में कुछ पढ़ते हैं।
कुमुद को गुप्ता परिवार ने बड़े लाड़ प्यार से पाला। श्री पार्वती जैन स्कूल में 10वीं तक पढ़ीं। पंजाब बोर्ड एग्जाम में दूसरे नंबर पर रहीं और लड़कियों में पहला स्थान हासिल किया। एचएमवी कालेज में प्रेप और प्री मेडिकल में भी युनिवर्सिटी टॉपर रहीं। अमृतसर मेडिकल कालेज में दाखिला मिल गया। दाखिला करवाने के लिए छह लोग एक फियट कार में बैठकर गए। कार चालक थे डॉ. प्रेम पसरीचा के बड़े बेटे राजेश पसरीचा। असल में दोनों परिवारों का आपस में काफी आना जाना था। राजेश पसरीचा कुमुद को बचपन से जानते थे। मगर राजेश पसरीचा को भी नहीं मालूम था कि कुमुद कभी उनकी जीवन संगिनी बनेंगी। खैर कुमुद का अमृतसर मेडिकल कालेज में एमबीबीएस में दाखिला हुआ और यहां भी अपनी टॉप करने की परंपरा का निर्वहन करते हुए दो गोल्ड मेडल हासिल किए। एमबीबीएस में एक साल इंटर्नशिप करनी होती है। इंटर्नशिप उन्होंने सिविल अस्पताल जालंधर में ही की। यहां राजेश पसरीचा भी सरकारी मेडिकल कालेज पटियाला से इंटर्नशिप के लिए पहुंचे थे। सिविल में दोनों की दोस्ती और गहरी हो गई। साल 1982 था और राजेश डॉ. राजेश और कुमुद डॉ. कुमुद बन चुके थे
कंडी एरिया के मरीजों की एक साल सेवा की
डॉ. राजेश पसरीचा ने एमएस
सर्जरी में दाखिला ले लिया
और डॉ. कुमुद ने सरकारी
नौकरी ज्वाइन कर ली। होशियारपुर के कंडी एरिया
के एक सरकारी अस्पताल में प्रेक्टिस शुरू
की। एक साल कंडी
एरिया में काम किया
और फिर अमृतसर मेडिकल
कालेज में एमडी गायनी
में दाखिला ले लिया।
डॉ. प्रेम को कुमुद
शुरू से पसंद थीं।
वह उन्हें अपने परिवार
में लाना चाहती थीं वहीं
डॉ. कुमुद की मां ओम कुमारी
को लगता था कि डॉ. राजेश
पसरीचा से बेहतर दूसरा
कोई वर उनकी बेटी
को नहीं मिल सकता।
दोनों माताओं से पहले
डॉ. राजेश और डॉ. कुमुद
एक दूसरे को पसंद
कर चुके थे।
तीन पीढ़ियों की दोस्ती रिश्तेदारी में बदली, 17 फरवरी को पसरीचा परिवार में आईं
बेशक वे डॉक्टर
थे लेकिन उन दिनों
डायरेक्ट बात करने का रिवाज
नहीं था। मगर जब ऊपर वाले
ने दोनों को एक दूजे
के लिए बनाया था तब छोटी
मोटी रुकावटें आड़े नहीं
आईं। कुमुद के बड़े
भाई डॉ. बलराज गुप्ता
को जरूर इस रिश्ते
में थोड़ी झिझक महसूस
हो रही थी लेकिन
17 फरवरी, 1985 को आखिरकार डॉ. राजेश
और डॉ. कुमुद परिणय
सूत्र में बंध ही गए। यह लव कम अरेंज
मैरिज कहलाई। यहां एक बात बताना
जरूरी है। डॉ. राजेश
पसरीचा के दादा डॉ. लाल चंद और डॉ. कुमुद
के दादा लाला रत्न
चंद भी एक दूसरे
के दोस्त थे। डॉ. लाल चंद सुल्तानपुर लोधी से जालंधर
उनकी दवा की दुकान
से दवाइयां खरीदने आते थे। तीन पीढ़ियों की दोस्ती रिश्तेदारी में बदल चुकी
थी। डॉ. कुमुद अभी गायनी
के आखिरी साल में थीं तो डॉ. राजेश
पसरीचा एमएस सर्जरी पूरी
कर अमृतसर शिफ्ट हो गए। डॉ. राजेश
ने पहले कक्कड़ अस्पताल और फिर वरयाम
सिंह अस्पताल में काम किया।
डॉ. राजेश काम पर जाते
तो डॉ. कुमुद पढ़ने।
अमृतसर में भी दोनों
ने कई यादें इक्ट्ठा की और एमडी
के आखिरी पेपर के दिन वह जालंधर
वापस लौट आए।
सुलतानपुर लोधी में आतंकी हमलों के बाद शिमला के वो डेढ़ साल..
पसरीचा परिवार का पुश्तैनी घर सुल्तानपुर लोधी
में है। डॉ. राजेश
पसरीचा बताते हैं कि मैं और कुमुद
हफ्ते में दो दिन अपने
गांव मरीजों को देखने
जाते थे। मेरे दादाजी
डॉ. लाल चंद बड़े
हिंदू लीडर थे और एक बेहद
काबिल डॉक्टर भी। एक दिन जब वे मरीजों
का चैकअप कर रहे थे तब उन पर बम फेंका
गया। हालांकि वह फटा नहीं।
हम पर परिवार का दबाव
था कि सुल्तानपुर लोधी
जाना बंद कर दो मगर कुमुद
और मुझे लगता था कि मरीजों
की सेवा से बढ़कर
हमारे लिए कुछ नहीं।
जवानी का जोश था और अंदर
से आवाज भी आती थी कि हम नहीं
डरते आतंकियों से।
शिमला के वो डेढ़ साल और रिभव का जन्म
सेवन डे एडवेंटिस्ट संस्था
के शिमला सेनेटोरियम अस्पताल में हमें नौकरी
मिल गई। हमने वहां
कुछ ऐसी सर्जरीज की जो पहले
वहां नहीं होती थीं।
डॉ. कुमुद ने वहां
सैकंड़ों महिलाओं की जान बचाई।
यहीं बेटे रिभव ने जन्म
लिया। शिमला में हमारे
काम को देखते हुए संस्था
ने हमें नेपाल की राजधानी काठमंडू से 22 किमी
दूर शीर मेमोरियल अस्पताल में ट्रांसफर कर दिया।
तभी पिताजी डॉ. केके
पसरीचा ने हमें जालंधर
बुला लिया। उनका आदेश
था कि यहां सेवक
राम अस्पताल की गायनीकॉलोजिस्ट नौकरी छोड़ गई हैं।
डॉ. कुमुद को ही अब इसे संभालना है। डॉ. कुमुद
ने सेवक राम अस्पताल में 6 महीने दिन रात एक कर दिए।
चंडीगढ़ 22 सेक्टर के काजल नर्सिंग होम को संभाला
डॉ. राजेश पसरीचा बताते हैं कि नेपाल से आए हमें छह महीने हुए थे कि मुझे न्यूरो सर्जरी में एमसीएच में दाखिला मिल गया। मैं चंडीगढ़ पीजीआई में पढ़ने आ गया। डॉ. कुमुद ने भी वही किया जो मैने उनकी गायनी डिग्री के फाइनल ईयर में किया था। वह जालंधर छोड़ मेरे पास चंडीगढ़ आ गईं। यहां उन्होंने काजल नर्सिंग होम सेक्टर 22(सी) में काम शुरू कर दिया। इस अस्पताल को चलाने वाली गायनीकॉलोजिस्ट चंडीगढ़ से किसी दूसरे शहर जाने वाली थीं। उन्होंने डॉ. कुमुद को अस्पताल की जिम्मेदारी दे दी। डॉ. कुमुद ने बखूबी उस अस्पताल को संजोया।
मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल, लंदन और जर्मनी में ट्रेनिंग
डॉ. कुमुद को मुंबई
के ब्रीच कैंडी अस्पताल में डॉ. साधना
देसाई के साथ काम करने
का मौका मिला। पसरीचा
दंपत्ति मुंबई शिफ्ट हो गया।
डॉ. राजेश पसरीचा केईएम
अस्पताल में न्यूरोसर्जरी पढ़ाने
लग गए। मुंबई दोनों
को रास आ गया।
डॉ. कुमुद देश की उन शुरूआती गायनीकॉलोजिस्ट में से एक थीं जिन्होंने हिस्ट्रोस्कोपी और लेप्रोस्कोपिक गायनीकॉलोजी में महारत
हासिल कर ली थी। उन्होंने हिस्ट्रोस्कोपी के फादर
कहे जाने वाले डॉ एडम एगोज़
के अधीन लंदन में ट्रेनिंग ली, साथ ही जर्मनी
में लेप्रोस्कोपिक गायनीकॉलोजी एंड इंफर्टिलिटी को भी सीखा।
वे अपनी फील्ड की मास्टर
थीं। मुंबई में उन्होंने एक इंफर्टिलिटी सेंटर
भी ज्वाइन कर लिया।
हमारी जिंदगी सही चल रही थी।
1993 में डॉ. कुमुद
ने बेटी सयोना को जन्म
दिया।
1994 के हादसे ने सब कुछ बदल दिया
जिंदगी बहुत अच्छे से चल रही थी मगर 1994 की एक घटना ने पसरीचा परिवार में सब कुछ बदल दिया। डॉ. राजेश पसरीचा बताते हैं कि मुंबई में ही हमारे साथ हमारा छोटा भाई डॉ. सौरभ भी प्रेक्टिस कर रहा था। वह होनहार एमडी मेडिसिन था और कार्डियोलॉजिस्ट
बनना चाहता था। एक शादी में शरीक होने के लिए वह मुंबई से पंजाब आए हुए थे। यहां रोड एक्सिडेंट में उनका स्वर्गवास हो गया। उसके जाने के एक साल तक हमें उसकी कमी लगातार खलने लगी। हमारा मन मुंबई से उचट रहा था। डॉ. कुमुद ने भी कहा अब घर चलते हैं। हम 1995 में जालंधर आ गए। मैं सीएमसी लुधियाना में न्यूरोसर्जरी विभाग में एचओडी बन गया और उन्होंने भगवान राम अस्पताल ज्वाइन कर लिया। पंजाब की पहली लेप्रोस्कोपिक हिस्ट्रेक्टमी सर्जरी और भी कई कीर्तिमान बनाए। मुंबई पंजाब से काफी फॉर्वर्ड था। मेडिकल साइंस की नई नई तकनीकें वहां पहले आना एक आम बात थी और इसलिए यहां पंजाब में पहली बार ऐसे कई ऑप्रेशन और प्रोसीजर थे जिन्हें करने का श्रेय डॉ. कुमुद को जाता है।
सत्यम अस्पताल की शुरूआत
डॉ. राजेश पसरीचा बताते हैं कि 1998 में हमने घर के एक हिस्से में एक अस्पताल बनाना शुरू किया। 2000 में घर तैयार हुआ और डॉ. कुमुद ने गायनी विभाग में काम शुरू कर दिया। आईवीएफ सेंटर शुरू किया। उसका नाम रखा शिवम। कपूरथला रोड पर हमारा एक प्लॉट है जिसे डॉ. कुमुद ने सुंदरम गार्डन का नाम दिया है। वहां वह एक अस्पताल खोलना चाहती थीं लेकिन हम खोल नहीं पाए। अल्ट्रासाउंड से ट्यूब खोलना हो या लेप्रोस्कोप से गायनी के अलग अलग प्रोसीजर करने हों। डॉ. कुमुद का पंजाब में कोई सानी नहीं था। इतनी काबलियत होने के बाद भी वह बेहद विनम्र थीं।
भगवान में अटूट विश्वास और एक दशक से अधिक समय से रोजाना हवन करना
हमेशा टॉप किया। गोल्ड मेडल लिए। अपनी फील्ड में शिखर पर रहीं। डाक्टर तो सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी कौम होती है। समाज में इनसे ज्यादा पढ़ाई करने वाली बिरादरी कोई दूसरी नहीं है। ये तो 100 प्रतिशत आधुनिक विज्ञान पढ़ते हैं। इसके बावजूद उनकी भगवान में अटूट श्रद्धा थी। वे सनातनी परिवार से आर्य समाजी परिवार में ब्याह कर आई थीं। उसके बावजूद उनकी आध्यात्म और भगवान में बेहद ज्यादा रूचि थी। आर्य समाज और सनातन का संगम। पिछले एक दशक से ज्यादा समय से वे रोजाना हवन कर रही थीं। डॉ. राजेश पसरीचा बताते हैं कि गुजरात के रोजर्ड स्थित वैदिक संस्थान के स्वामी उन्होंने हमारे घर बुलाकर हमारा आध्यात्मिक स्तर ऊंचा किया। हमारी माताजी डॉ. प्रेम पसरीचा ने जो परंपरा शुरू की उन्होंने उसे एक अलग ही लेवल तक पहुंचा दिया।
2014 में भूमध्य सागर (mediterranean sea) के बीच क्रूज में उनकी बीमारी बाहर आई
डॉ. राजेश बताते हैं कि डॉ. कुमुद पसरीचा एक हेल्दी लाइफ जी रही थीं। कोई शारीरिक कष्ट नहीं था। हम 2014 में भूमध्य सागर के बीचो बीच थे। क्रूज पर। उनके पेट में दर्द रहने लगी। हालत खराब थी। वापस जाने का रास्ता नहीं था। हमने जैसे तैसे वो दिन समुद्री जहाज पर काटे। भारत आते ही टेस्ट करवाए। टेस्ट में साफ हो गया कि यह बड़ी आंत का कैंसर है। बायोप्सी अमेरिका भी भेजी। पता चला यह बहुत तेजी से फैलने वाला कैंसर है। सीधे ऑप्रेशन संभव नहीं था। पहले मैक्स साकेत में जाकर रेडियोथैरापी से उस ट्यूमर को छोटा कर दिया गया और फिर गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में ऑप्रेशन करवाया। इस कैंसर को अगर ट्रीट न किया जाए तो 22 महीने में मृत्यू निश्चित मानी जाती है। 2014 से 2019 तक डॉ. कुमुद 13 ऑप्रेशन, दर्जनों कीमो थेरेपी सेशन से गुजरीं। हमने पहले दिन ही ठान लिया था कि हम लड़ेंगे। आखिर तक। यह उसी फाइट का नतीजा था कि हमें कुमुद की जिंदगी के अढ़ाई साल ज्यादा मिल गए। जो लोग यह कहते हैं कि कैंसर को छेडऩा नहीं चाहिए गलत सोचते हैं। यह एक भ्रम (मिथ) है कि कैंसर छेडऩे से बढ़ता है। इसे ट्रीट करना चाहिए। ज्यादातर ट्रीटमेंट दिल्ली में बेटे डॉ. रिभव और पुत्र वधु डॉ. श्रुति की देखरेख में हुआ।
मृत्यु शय्या पर भी जीवनदान दिया, 16 मार्च को ऑक्सीजन मास्क में आखिरी सर्जरी की
एक महिला मरीज इसी बात पर अड़ी था कि सर्जरी करवाऊंगी तो डॉ. कुमुद से ही। कुमुद की हालत लगातार खराब होती जा रही थी। पूरे घर में उनके बेड रूम से लेकर बाथरूम और बरामदे में भी ऑक्सीजन पाइपलाइन बिछा दी गई थी ताकि जहां कहीं भी उन्हें जरूरत हो ऑक्सीजन मिल सके। हम तो उन्हें काम से रोकते थे लेकिन जब भी कोई उन्हीं से इलाज के लिए अड़ जाता था तब वह किसी को निराश नहीं करती थीं। हमें बिना बताए मरीज देखने आ जाती थीं। 16 मार्च को उन्होंने जब ओटी में उस मरीज की सर्जरी शुरू की तब उनके मुंह पर ऑक्सीजन मास्क लगा था। यह शायद अपनी तरह का पहला मामला होगा जब एक तरफ मरीज के नाक पर मास्क था तो दूसरी ओर ऑप्रेशन करने वाला डॉक्टर भी ऑक्सीजन सिलेंडर से सांस ले रहा था। अपने मरीजों के प्रति उनका समर्पण किस हद तक था उसे इस घटना से समझा जा सकता है। वरना आज के समय में दूसरों की लिए इतनी पेन कौन लेता है। वह चाहती तो सीधे कह सकती थीं कि मैं खुद बहुत बीमार हूं आपका ऑप्रेशन नहीं कर सकती। ऐसी स्थिति में भला कोई ऑप्रेशन क्यों करेगा? मगर उन्होंने अपने जीवन की आखिरी सर्जरी को ऐसे हालात में अंजाम दिया जिस हालात में कोई बेड से हिल भी नहीं सकता था। खुद मृत्यु शय्या पर थीं लेकिन दूसरों को जीवन दान दिया। सर्जरी सफल रही और उस महिला मरीज की संतान सही सलामत दुनिया में आई।
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